राजनीति

दौर-ए-इलेक्शन में कहाँ कोई इंसान नज़र आता है

जब नगीचे चुनाव आवत है,
भात माँगो पुलाव आवत है।
हम तौ ऊ वीर हैं कि जब केहू,
मुँह पै थूके तौ ताव आवत है।।……..रफ़ीक सादानी

भाइयों और बहनों! ऊपर लिखी ये चार पंक्तियों ने अभी भी अपनी प्रासंगिकता नहीं खोई है, हाँ यह बात दीगर है कि चुनावी मौसम में मतदाताओं/समर्थकों को प्रत्याशियों द्वारा काफी तरजीह व तवज्जो दी जाती है। स्वरूप बदला है……पुलाव की जगह अब बिरयानी ने ले लिया है। छोड़िए…….बिरयानी, पुलाव और भात की बात न करके सीधे हम एक अहम मुद्दे पर आते हैं। हालांकि इस चुनाव में पार्टियों और प्रत्याशियों द्वारा किसी भी प्रकार का मुद्दा नहीं उठाया जा रहा है। इन प्रत्याशियों और पार्टी के स्टार प्रचारकों द्वारा अपशब्द अनाप-शनाप आरोप लगाए जा रहे हैं।
वैसे इस बार के चुनाव में ऐसा देखा जा रहा है कि राजनैतिक पार्टियों का मंच बॉलीवुड व भोजवुड में तेजी से तब्दील हो रहा है…..ऐसा क्यों न हो……..? हमारे पूर्वजों द्वारा काफी अर्सा पहले यह कहा जाता रहा है कि……………‘‘नाचै, गावै, तोरै तान। वही कै दुनिया राखै मान।।’’ पूर्वजों की यह कहावत वर्तमान में चरितार्थ हो रही है। मेगा, सुपर व स्टार सेलीब्रिटीज की पॉलिटिकल इन्ट्री तेजी से हो रही है। कब, कौन किस पार्टी में शामिल हो जाए इसका अन्दाजा लगा पाना मुश्किल है।
बीते दिनों निरहुआ सटल रहै फेम भोजपुरी स्टार दिलेश लाल यादव ‘निरहुआ’ ने बीजेपी की सदस्यता ली। कयास लगने लगा कि मूल रूप से गाजीपुर निवासी निरहुआ को भाजपा आजमगढ़ संसदीय क्षेत्र से उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के मुकाबिल खड़ा कर सकती है। ये सब पार्टी और प्रत्याशी के बीच का मामला है। हम तो बस इतना ही कहेंगे कि निरहुआ सटना जानता है क्योंकि- ‘‘दुलही रहै बिमार निरहुआ सटल रहै’’……ठीक इसी तरह अब जबकि विपक्षी दलों ने भाजपा व उसकी सरकारों को घेर रखा है तब ऐसे में निरहुआ के भाजपा से सटने को लेकर चर्चा जोरों पर है कि ये पार्टी के लिए फायदेमन्द साबित हो सकता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

डेढ़ दशक पूर्व दिनेश लाल निरहुआ का यह गाना- दुलही रहै बिमार निरहुआ सटल रहै……..धोबी गीत काफी पॉपुलर रहा। जिज्ञासा शान्ति के लिए हमने जब इसका अर्थ जानने का प्रयास किया तो कई समीक्षकों ने कहा कि यह गाना सूफियाना है…….उनके अनुसार निरहुआ का मतलब सिन्दूर से रहा और हिन्दू धर्म में सिन्दूर का कितना महत्व है इसको बताने जरूरत नहीं है। आशय यह कि हिन्दू सुहागिनें कितनी भी बीमार या परेशान रहें सिन्दूर लगाना नहीं छोड़ती……।
फायदे की बात चल निकली है तो यह कहना चाहेंगे कि राजनीति के माध्यम से कथित रूप से जनसेवा करने का ढिंढोरा पीटने वालों द्वारा अपनी अकूत कमाई को ही लक्ष्य बनाया गया है। नाच-गा कर शारीरिक रूप से थके हुए सेलिब्रिटीज का राजनीति में आकर धन, शोहरत कमाना एक मात्र उद्देश्य बना हुआ है। अपना काम बनता………..भाड़ में जाए जनता………ये भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्लोगन है, जो लगभग सभी नेताओं पर सटीक बैठता है।
हमारे यहाँ एक नेता हैं………..जो अपने जमाने के मशहूर लोक कलाकार रहे हैं इन्होंने वाद्य यन्त्रों को बजाने के साथ-साथ ऐक्टिंग करके अपनी जाति बिरादरी को समय-समय पर जागरूक भी किया है। नचनिया और बजनिया से लेकर नेता जी माननीय बन गए और धन-दौलत इतना कमा डाला कि इनका वैभव सबकी आँखों में खटकने लगा………फिर भी इन्होंने अपनी हरकतें जारी रखा हुआ है, इन महाशय पर कोई फर्क नहीं पड़ता…..ठीक वैसे ही जैसे कहा जाता है कि………कुछ तो लोग कहेंगे…..लोगों का काम है कहना……।
चुनाव के मौसम में हमें भी लगा था कि प्रत्याशियों द्वारा हमें भी तरजीह दी जाएगी परन्तु तरजीह पाने की दौड़ व होड़ में अनेकानेक नवयुवक इन नेताओं की गणेश परिक्रमा करते नहीं थक रहे हैं। पढ़े-लिखे हैं और सोशल मीडिया में छाए हुए हैं……………….शगल के अनुसार इनके द्वारा अपने चहेतों का महिमा मण्डन किया जाना जारी है। इसी तरह का एक नवयुवक मिला तो उससे जब पूछा गया कि आज कल क्या हो रहा है तो उसने स्पष्ट कहा कि बुरा मत मानिएगा………मैं त्रेता युग की दासी मंथरा की तरह यह नहीं कहूँगा कि- ‘‘कोऊ नृप होय हमैं का हानी, चेरि झाड़ि होबै न रानी’’………………। मैं कहना चाहता हूँ कि ‘उड़ाय ल्या मउज बबुनी जबले बा जवनिया’…….मतलब यह कि जब तक चुनावी मौसम चल रहा है जितना लाभ लेना है ले लें……..। वैसा ही कर रहा हूँ। आपकी तरह वसूल वाला बनकर कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है।

खैर! इस समय जब चुनावी मौसम चल रहा है और प्रत्याशियों व उनके समर्थकों का गहन जनसम्पर्क जारी है तब हमारे गाँव के निवासी रिश्ते में चाचा मरहूम झूरी सिंह की याद आ रही है। हमारे झूरी काका एक झोले में सभी पार्टियों का झण्डा, बिल्ला, बैनर लेकर चलते थे। गाँव-गिराँव की साइकिल व पदयात्रा भी किया करते थे। गाँव में जिस पार्टी व प्रत्याशी की लहर देखते थे वहाँ पहुँचने के पूर्व सिवान में ही झण्डा, बैनर व बिल्ला लगा लिया करते थे। इतना करने के उपरान्त वह गाँव में प्रवेश कर ग्राम वासियों से वार्तालाप के दौरान पार्टी प्रत्याशी को जिताने की बात करते थे। गाँव वाले समझते थे कि झूरी बाबू एक अच्छे कुशल पार्टी कार्यकर्ता हैं। उनका आदर सत्कार होता था साथ ही रात्रि विश्राम व खाने पीने की उत्तम व्यवस्था की जाती थी। रात्रि उपरान्त प्रातः काल जल-जलपान उपरान्त जब झूरी काका अपने दूसरे गन्तब्य की तरफ रूख करते थे तब गाँव वाले उनको आर्थिक सहयोग के साथ-साथ उनकी साइकिल के पीछे बोरे में खाद्यान्न व सब्जियाँ, भेली-गुड़ आदि रख दिया करते थे। इस तरह काका के लिए चुनाव के महीने अच्छी आमदनी का जरिया बने हुए थे।
झूरी काका मर गए……….। अर्सा बीत गया……..अब चुनाव प्रचार का तरीका भी काफी बदल गया है। पहले पार्टी प्रत्याशी पैदल, साइकिल, तांगा आदि में बैठकर भोंपू के जरिये अपना प्रचार किया करते थे, वर्तमान का चुनाव काफी खर्चीला व महंगा हो गया है। कैंडीडेट व उसके समर्थक लग्ज़री गाड़ियों में बैठकर क्षेत्र में जा-जाकर जनसम्पर्क करते हैं। इससे इतर कई निर्दल प्रत्याशियों को देखा जा रहा है कि वह चुनाव के मौसम में इधर-उधर जाकर नाश्ता, भोजन व रात्रि विश्राम कर रहे हैं। वहाँ लोगों को अपने चुनाव लड़ने की बात भी बता रहे हैं। लम्बी-चौड़ी बातें करके विशुद्ध नेताओं की तरह संसद में पहुँचने के लिए हाथ-पाँव मार रहे हैं। कुल मिलाकर इस समय चुनावी मौसम चल रहा है, और माहौल गर्माया हुआ है।
फेसबुक पर अजय कुमार चौबे एहसास युवा कवि ने एक पोस्ट अपलोड किया है, जिसे पढ़कर अच्छा लगा और उसकी प्रासंगिकता शत-प्रतिशत सटीक लगी। युवा कवि एहसास की फेसबुक पोस्ट कुछ इस प्रकार है-
वर्तमान की सियासत को देखते हुए एक शेर अर्ज है कि- दौर-ए-इलेक्शन में कहाँ कोई इंसान नज़र आता है, कोई हिन्दू कोई दलित तो कोई मुसलमान नज़र आता है। बीत जाता है जब इलाकों में इलेक्शन का दौर, तब हर श़ख्स रोटी के लिए परेशान नज़र आता है।

भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी, 9454908400

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