हम सब इस धरती पर अकेले ही आते हैं और अकेले ही जाते हैं और सभी अपनी अपनी छमता के अनुसार ही जीवन जीते हुए एक पहचान प्राप्त करते हैं और एक पारस्परिक संबंध को बनाते हैं जिनका जीवन में एक विशेष महत्व और स्थान है।
|| कुमारी बीना
उस असीम सत्ता ने हमें एक परिवार-परिवेश में उत्पन्न किया, स्वजन व परिजन दिए, विशेष परिस्थितियों में जीते हुए अपनी जीवन-यात्रा का निर्वाह करने का आदेश दिया है; तो क्या इनको नकारना ईश्वर के आदेश की अवहेलना नहीं है? हर संबंध मन व भाव से संबद्ध है- वैयक्तिक स्तर से लेकर वैश्रि्वक स्तर तक। इन सभी संबंधों को दायित्य बोध की मथानी से मथने पर स्नेह, आत्मीयता व माधुर्य का नवनीत प्राप्त होता है, जिससे आचरण में सहजता, सहिष्णुता, सामंजस्य व क्षमाशीलता आदि गुण विकसित होते हैं। संबंधों के संदर्भ में दायित्व पूर्ति के समय बुद्धि का अत्यधिक प्रयोग प्रतिकूल परिस्थिति को उत्पन्न करता है। अहम् की उत्पत्ति के कारण अनुकूलन या सामंजस्य का अभाव सामने आता है और तनाव की स्थिति प्रकट होती है। तनाववश हम स्वयं को आहत, अकेला व असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और दायित्व बोध को भूलकर अधिकार प्राप्ति की लड़ाई में शामिल होने से स्वयं को रोक नहीं पाते।
संबंधों के प्रति दायित्व बोध को नकारने से नकारात्मक विचार, बौद्धिक अशांति और शारीरिक अस्वस्थता के साथ-साथ विचार-विनिमय व सेवा-सम्मान जैसे सद्गुणों का ह्रास होता है। कुछ प्रश्न ऐसे हैं, जिन पर शांत मन से विचार करके संबंधों के प्रति दायित्व की क्षमता को ऊर्जावान बनाया जा सकता है। क्या बड़ों का अपमान करके अपना सम्मान बचाया जा सकता है? क्या हमें अपने व्यवहार से दूसरों को कष्ट देने का अधिकार प्राप्त है? क्या ईश्वराधीन विषयों-हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश अपयश में हस्तक्षेप करके दूसरे को हानि पहुंचाकर सुखी हुआ जा सकता है? क्या स्वार्र्थो की पूर्ति के लिए ही संबंधों का महत्व है? इन सभी प्रश्नों का केंद्रीय समाधान है- प्रत्येक संबंध के उत्तम भावों की स्वीकार्यता व उनकी मधुर-प्रतीति। अधिकार-प्राप्ति के स्थान पर दायित्व बोध की गरिमा का सम्मान। ऐसा होने पर पारस्परिक विश्वास व सहयोग का संबल प्राप्त करके जीवन को सच्चे अर्थो में पूर्ण किया जा सकता है।