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साहेब का मेरठ…2014 में 1857 का गदर और 2019 में गालिब की ‘सराब’

2 फरवरी 2014 और 28 मार्च 2019 का अंतर सिर्फ तारिख भर का नही है । बल्कि भारत जैसे देश में कोई सत्ता कैसे पांच बरस में हाफंने लगती है । कैसे पांच बरस में सपने जगाने का खेल खत्म होता है । पांच बरस में कैसे चेहरे की चमक गायब हो जाती है । पांच बरस बाद कैसे पांच बरस पहले का वातावरण बनाने के लिये कोई क्या क्या कहने लगता है । सबकुछ इन दो तारिखो में कैसे जा सिमटा है इसके लिये 2 फरवरी 2014 में लौट चलना होगा जब मेरठ के शताब्दी नगर के मैदान में विजय संकल्प रैली के साथ नरेन्द्र मोदी अपने प्रधानमंत्री बनने के लिये सफर की शुरुआत करते है । और प्रधानमंत्री बनने के लिये जो उत्साह जो उल्लास बतौर विपक्ष के नेता के तौर पर रहता है और जिस उम्मीद को जगा कर प्रधानमंत्री बनने के लिये बेताब शख्स सपने जगाता है । सबकुछ छलक रहा था । तब सपनो के आसरे जनता में खुद को लेकर भरोसा पैदा करने के लिये सिस्टम – सत्ताधारियो से गुस्सा दिखाया गया । गुस्सा लोगो के दिल को छू रहा था । नारे मोदी मोदी के लग रहे थे । तबकुछ स्वत:स्फूर्त हो रहा है तब मबसूस यही हुआ । लेकिन वही शख्स पांच बरस बाद 28 मार्च 2019 को बतौर प्रधानमंत्री जब दोबारा उसी मेरठ में पहुंचता है । और पाच बर पहले की तर्ज पर चुनावी रैली की मुनादी के लिये मेऱठ को ही चुनता है तो पांच बरस पहले उम्मीद से सराबोर शख्स पांच बरस बाद डरा सहमा लगता है । उत्साह-उल्लास का मुखौटा लगाये होता है । किसान मजदूर का जिक्र करता है तो वह भी मुखौटा लगता है । जनता में उम्मीद और भरोसा जगाने के लिये सिस्टम या सत्ताधारियो के प्रति आक्रोष नहीं दिखाता बल्कि सपनो की ऐसी दुनिया को रचना चाहता है जहा सिर्फ वह खुद ही हो । वह खुद ही देश हो । खुद ही संविधान हो । खुद ही सिस्टम । खुद ही आदर्श हो । तो ऐसे में शब्द वाण सही गलत नही देखते बल्कि शबदो का ही चीरहरण कर नई नई परिभाषा गढ करने की मदहोशी में खो जाते है । उसी से निकलता है ‘सराब’ । तो कुछ भी कहने की ताकत प्रधानमंत्री पद में होती है …लेकिन कुछ भी कहने की सोच कैसे बातो के खोखलापन को उभार देती है ये भी खुले तौर पर उभरता है । यानी 2014 में मेरठ से शुरु हुये चुनावी प्रचार की मुनादी में 1857 के प्रथम स्वतत्रका संग्राम के जरीये काग्रेस के स्वतंत्रता आंदोलन पर निसाना साधने का माद्दा नरेन्द्र मोदी रखते है । लेकिन 2019 में उनके सामने काग्रेस नहीं बल्कि सपा-आरएलडी-बसपा का गठबंधन है तो वह तीनो को मिलाकर “सराब” शब्द की रचना कर देते है । मौका मिले तो यू ट्यूब पर नरेन्द्र मोदी का 2 फरवरी 2014 का भाषण और 28 मार्च 2019 का भाषण जरुर सुनना चाहिये । क्योकि दोनो भाषण के जरीये मोदी ने लोकसभा चुनाव में भाषण देने की रैलियो से शुरुआत की । और किस तरह पांच बरस में मुद्दो को लेकर । शब्दो को लेकर । सोच को लेकर । विचार को लेकर । सिस्टम को लेकर । या फिर देश कैसा होना चाहिये इस सोच को परोसने में कितना दिवालियापन आ जाता है , इसकी कल्पना करने की जरुरत नहीं है । सिर्फ उन्ही के मेरठ रैली के भाषणो को सुन कर आप ही को तय करना है । वैसे सराब शब्द शराब होती नहीं । लेकिन भाषण देते वक्त देश के प्रधानमंत्री मोदी को शायद इतिहास के पन्नो में झांकने की जरुरत होनी चाहिये या फिर उन्होने झांका तो जरुर होगा क्योकि 2014 के भाषण में वह 1857 के गदर का जिक्र कर गये थे तो 2019 में सराब शब्द से शायद उन्हे गालिब याद आ रहे होगें क्योकि गालिब तो 1857 में भी दिल्ली से मेरठ शराब लेने ही जाया करते थे । खैर इतिहास को देश के प्रधानमंत्री की तर्ज पर याद करने लगेगें तो फिर इताहिस भी कितना गड्डमगड्ड हो जायेगा इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है । और समझ के खोखलेपन की कल्पना तो अब इस बात से भी की जा सकती है कि कैसे चौबिसो घंटे सातो दिन न्यूज चैनलो पर बीजेपी के प्रवक्ता या मोदी कैबिनेट के मंत्री क्या कुछ आकर कहते है । शब्दो की मर्यादा को प्रवक्ता भूल चुके है या फिर उनकी सत्ता का वातावरण ही उन्हे ऐसी सथिति में ले आया है जहा उनका चिल्लाना, झगडना, गाली गलौच करना , बिना सिरपैर के तर्क गढना , आंकडो का पहाड खडा कर मोदी से उस पर तिरगा फहरा देना । फिर सीमा की लकीर समाज – समुदाय के भीच खिंचकर शहादत के अंजाद में खुद को देशभक्त करार देना या फिर सामने वाले को देशद्रोही करार देते हुये खुद को देशभक्ति का तमगा दे देना । खोखले होते बैको तले देशहीत जोड देना । घटते उत्पादन और बढती बेरोजगारी से अपने इमानदार होने के कसीदे गढ लेना । जाहिर है जो लगातार कहा जा रहा है और जिस अंदाज में कहा जा रहा है वह सियासत की सस्कृति है या फिर वाकई देश को बीते पांच बरस में इतना बदल दिया गया है कि देश की सस्कृति ही गाली-गलौच वाली हो गई । लिचिंग से लेकर लाइन में खडे होने से मौत । गौ वध के नाम पर हत्या। आंतक-हिंसा को कानून व्यवस्था के फेल होने की जगह घर्म या समुदायो में जहर खोलने का हथियार । बिगडती इक्नामी से बेहाल उघोग त्रसदी में फंसे व्यापारी और काम ना मिलने से दो जून की रोटी के लिये भटकते किसान- मजदूर के सामने भ्रष्ट्रचार मुक्त भारत के लिये उठाये कदम से तुलना करना । शिक्षा के गिरते स्तर को पश्चमी शिक्षा व्यवस्था से तुलना कर भारतीय सस्कृति का गान शुरु कर देना ।
जाहिर है जब सत्ता में है तो जनता ने चुना है के नाम पर किसी भी तरह की परिभाषा को गढा तो जा सकता है । और देश के सर्वौच्च संवैधानिक पदो पर बैठा शख्स संविधान को ढाल बनाकर पदो की महत्ता तले कुछ भी कहे सुनने वालो में भरोसा रहता है कि झूठ-फरेब तो ऐसे पदो पर बैठकर कोई कर नहीं सकता या कह नही सकता । लेकिन पांच बरस की सत्ता जब दोबारा उसी संवैधानिक पद पर चुने जाने के लिये चुनावी मैदान में “सराब” की परिभाषा तले खुद की महानता का बखान करें तो फिर अगला सवाल ये भी है कि क्या देश इतना बदल चुका है जहा बीजेपी के प्रवक्ता हो या दूसरी पार्टियो के नेता और इन सबके बीच एंकरो की फौज । जिन शब्दो के साथ जिस लहजे में ये सभी खुद को प्रस्तुत कर रहे है उसमें इनके अपने परिवार के भीतर ये मूखर्तापूर्ण चर्चा पर क्या जवाब देते होगें । बच्चे भी पढे लिख है और मां बाप ने भी अतित की उस राजनीति को देखा है जहा प्रधानमंत्री का भाषण सुन कर कुछ नया जानने या समझदार नेता पर गर्व करने की स्थितिया बनती थी । लेकिन जब कोई प्रधानमंत्री हरसेकेंड एक शब्द बोल रहा है । टीवी, अखबार, सोशल मीडिया , सभी जगह उसके कहे शब्द सुने-पढे जा रहे है । और पांच बरस के दौर में नौकरशाही या दरबारियो के तमाम आईडिया भी खप चुके है तो फिर भाषण होगा तो जुबां से “सराब” ही निकलेगा , जिसका अर्थ तो मृगतृष्णा है लेकिन पीएम ने कह दिया कि स और श मेंकोई अंतर नहीं होता फिर मान लिजिये ‘ सराब ‘ असल में ‘ शराब ‘ है । और याद कर लिजिये 1857 के मेरठ को जहा की गलियो में दिल्ली से निकल कर गालिब पहुंचे है और गधे पर ‘सराब’ लाद ये गुनगुनाते हुये दिल्ली की तरफ रवाना हो चुके है …आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक / कौन जीता है तिरी जुल्फो के सर होने तक…

पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से साभार

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