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‘कबीर सिंह’ हमारे समाज का नायक कैसे हो सकता है ?

मीडिया में एक प्रवृति लगभग विलुप्ति की कगार पर है और वो है- सवाल करने की। लेकिन जब कोई आपके जीवन को किसी भी तरीके से प्रभावित करता है, तब आपको उससे और कई दफ़े खुद से सवाल करना पड़ता है; जब महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों पर सवाल खड़े होने लगे तब जा कर कहीं सीनेमा ने महिला केंद्रित फ़िल्में बनानी शुरू की। लेकिन इस बात पर दाग तब लग जाता है जब ‘प्रीति सिक्का’(फ़िल्म की पात्र) को थप्पड़ पड़ता है और चाकु की नोक पर एक लड़की को कपड़े उतारने के लिए दबाव बनाया जाता है; दरअसल यह दृश्य फ़िल्म ‘कबीर सिंह’ का है।
||प्रतीक वाघमारे

जब इस फ़िल्म की आलोचना होने लगी तब फ़िल्म की विभिन्न समिक्षाओं को गाली देते हुए एक भीड़ अभिव्यक्ति की आज़ादी का तर्क दे रही थी, लेकिन वही भीड़ गाली दे कर समीक्षा होने की अभिव्यंजना को भी कुचल रही थी। अभिव्यक्ति की आज़ादी हर किसी को है तो वही समीक्षा करने की आज़ादी भी हर किसी को है। भले ही वह उच्च अदालत के फ़ैसले की क्यों न हो।

हेश टेग मीटू के दौर में जहाँ महिलाएँ अपनी अभिव्यक्ति को खुल कर रख रही है, उनके खिलाफ हो रहे अत्याचारों पर बात कर रही है, अपने हक़ के लिए लड़ रही है, अपना एक मत(स्टैंड) ताकत से रखती है उस दौर में एक ऐसी फ़िल्म आती है जो महिलाओं को कमज़ोर दिखाती है क्योंकि फ़िल्म ‘कबीर सिंह’ में कबीर के ही इशारे पर फ़िल्म की अभिनेत्री हर काम कर रही थी, यहाँ तक प्यार करने के लिए कबीर उसे ‘चुनता’ है और वो भी कॉलेज की ‘क्यूट-सी’ जुनियर की तरह अपने आप को कबीर के लिए समर्पित कर देती है, फ़िल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ने लगती है वैसे-वैसे लगने लगता है कि उस लड़की का खुद पर से ज़्यादा उस पर कबीर का हक़ है। और ऐसी प्रवर्ती वाला नायक कैसे हो सकता है। फ़िल्म की शुरूआत से लगता है कि वह ‘साइको’ है लेकिन अंत में जब सब कुछ उसके अनुकुल हो जाता है तब लगता है, नहीं वह साइको बन रहा था और चूंकि वह नायक है इसिलिए उसका साइको होना भी सही है, एक साइको के अनुकुल चीजे हो जाना, नायक होने के गुण नहीं है, फिर भी कबीर सिंह नायक कैसे ? हमें तो नायक होने के अलग गुण बताए गए है- एक नायक वह होता है जो आपदा में चीज़े को बिगड़ने से संभाले, हिंसा करना हर चीज़ का समाधान नहीं है। फ़िल्म के एक हिस्से में कबीर सिंह अभिनेत्री को वापिस लौटने के लिए छ: घंटे का समय देता है उस दृश्य में ऐसा लगता है जैसे अभिनेत्री कोई प्रोडक्ट हो और छ: घंटे में अगर डिलिवरी न हुई तो डील कैंसिल।

फिल्म कबीर सिंह के प्रमोशन पर शाहिद कपूर

फ़िल्म को शायद अपने ‘काल्पनिक पात्र होने’ के डिस्क्लेमर में यह बताना चाहिए था- कि ‘लेट दि प्रीति ओलरेडी लव्ज़ कबीर एंड धिस इज़ 15वीं सेंक्चुरी, नो डेमोक्रेसी एंड जिसकी तलवार में ताकत बंदी उसकी’;

यह कोई फ़िल्म समीक्षा नहीं है और न ही मैं कोई अच्छा समीक्षक हूँ लेकिन मैं एक दर्शक होने के नाते अपेनी कुंठा को दर्शाने का अधिकार रखता हूँ और इसिलिए मेरे अनुसार यह समाज के लिए ठीक फ़िल्म नहीं है और न ही यह मनोरंजक साबित होती है।

लेकिन आप अभिव्यक्त करने की आज़ादी के अधिकार की ताकत देखिए जो इस फ़िल्म को हमारे सामने लाती है जिससे पता चलता है कि हमारे समाज में अभी भी एक ऐसी सोच ज़िंदा है जो समाज को अंदर से खा रही है, सिनेमा हॉल में कबीर सिंह के कारनामो पर बजती तालियाँ और सीटियाँ इसका जीता जागता सूबूत है। फ़िल्म के दौरान मैंने लड़कियों की प्रतिक्रियाओं को नोटिस नहीं किया है।

सच भी यही है कि समाज में हर तरह का पात्र और तरह-तरह की विशेषताएँ मौजूद है, लेकिन ऐसे पात्र के लक्षण किसी नायक में तो नहीं ही होते है आप नायक को कैसे परकिभीषित करते है उस पर ध्यान दीजिए। और अगर हमें दो फीसदी भी कबीर सिंह की ज़रूरत है तो पुलिसिया तंत्र में इसकी ज़रूरत दिखाई पड़ती है जो प्रीति जैसे पीड़ितों को बचाने के लिए समय पर पहूँच जाए, कबीर सिंह के ऐटिट्यूड की ज़रूरत उन अस्पतालों को है जो ज़रूरत मंदो की पहूँच से कोसों दूर है।

बहराल यहाँ एक कबीर सिंह को नायक के रूप में पेश कर दिया गया है लेकिन वाकई में फ़िल्म को कोई संदेश पहूँचाने की ज़रूरत थी तो वह यह थी की ऐसा कबीर सिंह कभी समाज का नायक नहीं बल्कि नालायक ही हो सकता है।

बाकी फ़िल्म ने 200 करोड़ से ज़्यादा का कारोबार कर लिया है और फ़िल्म के शुरूआत में इसे मनोरंजन के लिए देखने का संदेश है न ही इससे कुछ सीख लेने का।

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