आजकल छात्र जो आंदोलन कर रहे हैं ये कोई पहली दफ़ा नहीं हो रहा है. मुख्यधारा का मीडिया अब आपको ये बिल्कुल नहीं बताएगा क्योंकि उन्हें तथाकथित ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का एक नया चेहरा अमूल्या लियॉन के रूप में मिल गया है.
|| प्रतीक वागमारे
इसे मीडिया टीआरपी के लिए टॉनिक की तरह इस्तेमाल करेगा. लेकिन 1974 के समय में झांके तो इतिहास बताता है कि हमारे प्यारे प्रधानसेवक नरेद्र मोदी से लेकर स्वर्गीय अरुण जेटली तक ऐसे कई विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा रह चुके हैं. यहां तक कि गुजरात में तो मेस फीस को लेकर शुरू हुए विरोध प्रदर्शन ने बड़ा रूप ले लिया था. अब इससे प्रेरणा तो नहीं लेनी चाहिए लेकिन उस वक़्त चक्का जाम से लेकर सरकार की संपत्ति को भी काफी नुकसान पहुंचाया गया था. लेकिन किसी भी सीएम ने नुकसान की भरपाई का कोई ऐलान नहीं किया था. जैसा हाल ही में उत्तर प्रदेश में हुआ. जब लोग सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर प्रदर्शन कर रहे थे.
आज भी जेएनयू से लेकर आईआईटी और भारत के कई छोटे-बड़े सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों ने फ़ीस वृद्धि के खिलाफ मोर्चा खोला है. छात्र अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के तहत ही प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन मुख्यधारा का मीडिया (जिसमें अब व्हाट्सएप्प भी आने लगा है) उनसे सवाल करने लगा है कि आप टैक्सपेयर के पैसों पर पढ़ रहे हो और पढ़ाई छोड़ कर प्रदर्शन में क्यों लगे हो ? गिरती अर्थव्यवस्था और कई बड़ी समस्याओं के बीच इस सवाल का बड़ा अच्छा जवाब भारतीय जनसंचार संस्थान यानी आईआईएमसी के एक छात्र ने दिया. आईआईएमसी में भी फ़ीस वृद्धि को लेकर विरोध प्रदर्शन हुआ. इसी प्रदर्शन के दौरान इस सवाल का जवाब मिला. छात्र ने बताया कि “हमारे पास कॉलेज की फ़ीस भरने के लिए इतना पैसा नहीं है इसलिए हम टैक्सपेयर्स के पैसों पर पढ़ना चाहते हैं. ताकि हम पढ़ सकें और खुद एक टैक्सपेयर बन सके, जिससे हम भी देश की उन्नति में अपना योगदान दे सके.”
कोई अगर टैक्सपेयर के पैसों पर पढ़ रहा है तो इसमें गलत क्या है ? टैक्स व्यवस्था इसीलिए ही तो अस्तित्व में आई कि हम टैक्स दे और हमारे देश का निर्माण हो सके. अगर छात्र फ़ीस में कटौती की मांग कर रहे हैं तो उसमें मुख्यधारा की मीडिया को ऐसा क्यों लग रहा कि वो सरकार को दिया हुआ. टैक्सपेयर का पैसा व्यर्थ कर रहे हैं. आयकर के अलावा भी और कई तरह के कर होते हैं. जैसे दूध खरीदते वक़्त भी आप अप्रत्यक्ष रूप से टैक्स जमा कर रहे होते हैं. कोई अगर न्यूनतम से न्यूनतम फ़ीस हो ऐसा सपना देखता है या वो मुफ्त शिक्षा व्यवस्था की बात करता है तो इसमें गलत क्या है ?
ऐसे ही तो गरीबी कम की जा सकती है. जब एक गरीब वर्ग का बच्चा अच्छी शिक्षा प्राप्त करेगा तभी वो अच्छा रोजगार मिलेगा. इसके बाद ही वो भी टैक्सपेयर बन सकेगा. यहां एक और सवाल खड़ा होता है कि छात्रों के गंभीर प्रदर्शनों को बकवास, बेहुदा या पढ़ाई से भटकने वाला क्यों बोला जाता है ?
इससे मुख्यधारा का मीडिया कहीं न कहीं उन छात्र आन्दोलनों को कमजोर कर देता है. आन्दोलनों की आलोचना जायज है लेकिन बेहुदे आरोप उन छात्रों के अधिकारों से उन्हें वंचित कर देते हैं. जबकि फ़ीस वृद्धि, सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दों की वजह से वो और भी जागरुक हुए हैं. उनमें बदलाव (सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक) को लेकर एक जुनून पैदा हुआ है. अगर इन पढ़े-लिखे छात्रों का जुनून उन्हें राजनीति में ले आए है तो शायद ये सवाल होने बंद हो जाएंगे कि ‘राजनीति में कैसे-कैसे लोग आ जाते है’.
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