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क्या भाजपा के गले की फांस बन गई है हरियाणा प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति?

मई 2019 के आम लोक सभा चुनाव में हरियाणा की दस की दस सीट भाजपा की झोली में आने के बाद प्रदेश भाजपा के अग्रध्वज मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर इतने उत्साहित हो गए थे कि उन्होंने छः माह बाद होने वाले विधानसभा के आम चुनाव के लिए भाजपा की मोदी-शाह वाली द्विसदस्यीय हाई कमान को हरियाणा में अपना अस्तित्व एवं कद दर्शाने हेतु बिना धरातल की वास्तविकता जाने नब्बे सीट वाली विधान सभा के लिए पिचहतर पार का लक्ष्य निर्धारित कर अश्वमेध यात्राएं शुरू कर दी.
|| जग मोहन ठाकन, चंडीगढ़

लोगों की अपार भीड़ को देखकर भाजपा के अन्य नेताओं को भी यह कल्पना सच होती नज़र आने लगी थी. परन्तु जब अक्टूबर 2019 में विधानसभा सीटों के चुनाव परिणाम आये तो अग्रध्वज सहित भाजपा के सभी छोटे बड़े नेताओं के मुह कोरोना आने से पहले ही मास्क से ढकने शुरू हो गए. भाजपा नब्बे में से पचास सीटों पर धराशाही हो गयी और उसके केवल चालीस विधायक ही जीत पाए, जो साधारण बहुमत और प्रदेश में सरकार बनाने लायक संख्या से भी छः कम थे.अस्सी प्रतिशत मंत्री भी चित हो गए.

भाजपा ने मुख्यमंत्री खट्टर के इलावा अपने दस मंत्री चुनाव मैदान में उतारे थे,जिनमे से केवल दो मंत्री- अनिल विज (अम्बाला छावनी ) तथा डॉ बनवारी लाल ( बावल ) विजयी हुए तथा शेष रामबिलाश शर्मा (महेन्द्रगढ़ ), कैप्टेन अभिमन्यु ( नारनौंद), ओमप्रकाश धनखड़ ( बादली ), कविता जैन (सोनीपत ), कृष्ण लाल पंवार ( इसराना), मनीष कुमार ग्रोवर (रोहतक), कृष्ण कुमार बेदी (शाहबाद ) एवं करण देव कम्बोज (रादौर ) धराशाही हो गए. मुख्यमंत्री खट्टर भी करनाल सीट से जीत तो गए परन्तु उनका जीत का अंतर 2014 के चुनाव के मुकाबले 2019 में 18500 वोट से नीचे आ गया. जबकि होना यह चाहिए था कि प्रदेश के मुख्यमंत्री होने के नाते उनका जीत का मार्जिन बढ़ना चाहिए था, इससे यह तो सिद्ध हो ही गया कि पब्लिक में उनकी पोपुलारिटी एवं पकड़ कमजोर हुई है. मुख्यमंत्री खट्टर का खुद की जीत का मार्जिन कम होना तथा उनके मंत्री मंडल के दस में से आठ मंत्रियों का हार जाना एवं भाजपा का साधारण बहुमत भी ना आना उनके नेतृत्व तथा उनकी सरकार की विफलता को तो दर्शाता ही है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला को भी हार नसीब हुई और उनकी पार्टी को नब्बे में से केवल चालीस सीट मिली,जिससे स्पष्ट निष्कर्ष तो निकलता ही है कि वे एक कमजोर नेता रहे हैं या उन्हें किसी ख़ास मकसद के तहत कमजोर किया जाता रहा है. यह दर्शाता है कि प्रदेश में तमाम शक्तियों का केंद्र बिंदु मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द ही रहा है और पार्टी प्लेटफार्म को उपेक्षित ही रखा गया.

खैर ‘‘खुदा मेहरबान तो लाडू जिमनियाँ का के घाटा”. चुनाव के दौरान पानी पी पी कर भाजपा को कोसने वाली जन नायक जनता पार्टी (जजपा ) चाहवै तो दूल्हा बणना थी,पर बिन्दायक बणनै में बी के टोटा. झट अपने दस विधायक डाल दिए भाजपा की झोली में और डिप्टी चीफ मिनिस्टर और मलाईदार महकमों (बकौल जजपा विधायक राम कुमार गौतम ) के मन्त्रालय बाँध चादर मंह राज मंह सीर कर लिया.

 

विधानसभा चुनावों में पार्टी की हार के तुरंत बाद से ही हार के लिए बलि का बकरा पार्टी अध्यक्ष सुभाष बराला को ही बनाया गया और सरकार की विफलता के लिए असली जिम्मेवार मुख्यमंत्री खट्टर की छवि को हीरो की माफिक प्रचारित कर पुन: मुख्यमंत्री की गद्दी सौंप दी गयी.इस हार की झेंप को मिटाने हेतु पार्टी लगातार आठ महीने से अपना नया प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त करने का राग अलाप रही है, पर ना जाने ऐसी कौन सी ताकत है जो पार्टी को नया अध्यक्ष बनाने से रोक रही है ? अध्यक्ष नियुक्ति का मसला भाजपा के गले की फांस बना हुआ है. राजनैतिक विचारक मानते हैं कि पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष सुभाष बराला ( जाट ) को हटाकर नया अध्यक्ष नियुक्त करने में पेच उलझे हुए हैं. राष्टीय स्तर के पार्टी कर्णधार चाहते हैं कि जाट अध्यक्ष को हटाकर दोबारा भी किसी जाट नेता,जो दबंग हो, जिसका जनाधार भी हो, जो पार्टी के प्रति वफादार भी रहा हो और जिसकी प्रदेश के मुख्यमंत्री खट्टर से भी पटरी बैठ जाए,को ही अध्यक्ष की कुर्सी सौंपी जाए ताकि विधानसभा चुनाव में पार्टी से विलग हुआ यह तबका पुनः भाजपा की तरफ मुड़ सके.परन्तु भाजपा के पास ना तो इन सभी गुणों से युक्त कोई जाट नेता प्रदेश में है और ना ही प्रदेश के मुखिया को इस प्रकार का व्यक्ति स्यूट करता है. कुछ अन्य राजनैतिक विश्लेषक मानते है कि प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री चाहते है कि किसी गैर जाट को ही यह पद सौंपा जाए, क्योंकि जाट वोट बैंक को तो सत्ता में सांझीदार जजपा खुद ही गठबंधन से जोड़े रखेगी.

प्रदेश अध्यक्ष की दौड़ में पूर्व वित्तमंत्री कैप्टन अभिमन्यु, पूर्व कृषि मंत्री ओपी धनखड़, पूर्व शिक्षामंत्री रामबिलास शर्मा, पूर्व विधायक पवन सैनी, संदीप जोशी, विधायक कमल गुप्ता समेत कई नाम गिनाये जा रहे हैं, जो पार्टी हाईकमान के विचाराधीन बताये जा रहे हैं.

भाजपा के पास अध्यक्ष पद के टेस्टेड एंड ट्रस्टीड जाट दावेदारों में दो ही प्रमुख नाम है –पूर्व वित्तमंत्री कैप्टन अभिमन्यु एवं पूर्व कृषि मंत्री ओपी धनखड़.दोनों ही 2019 के विधान सभा चुनावों में अपने अपने जाट बाहुल्य क्षेत्रों में जाटों के आक्रोश का शिकार हो गए. दोनों ही नेता पुराने भाजपा के कार्यकर्ता रहे हैं, भाजपा पार्टी के प्रति तो वफादार हैं,परन्तु पता नहीं क्यों लोगों में मुख्यमंत्री के प्रति इनकी वफादारी प्रारम्भ से ही शंका के घेरे में चर्चित रही है.दोनों का ही अपने विधानसभा क्षेत्रों से बाहर तो जनाधार नगण्य है ही अपने अपने विधान सभा क्षेत्र में भी होल्ड ढीला ही है, दोनों महत्वाकांक्षी हैं और चीफ मिनिस्टर की कुर्सी पर नज़र टिकाये हुए हैं परन्तु राजनैतिक जोड़-तोड़ में प्रवीणता नहीं के बराबर है. कुशल और सफल राजनीतिज्ञ के आमतौर पर यह चार गुण माने जाते हैं – महत्वाकांक्षा, जनाधार, जोड़-तोड़ में प्रवीणता तथा वफादारी. कई बार ये गुण एक दूसरे के विरोधभासी भी सिद्ध हो जाते हैं. इन दोनों के ही अध्यक्ष बनने में इनकी मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा, जनाधार का अभाव तथा राजनीतिक जोड़-तोड़ में प्रवीणता की कमी आड़े आ रही है, अकेले पार्टी के प्रति वफादारी इनके पक्ष में काम नहीं कर पा रही है, पार्टी की वफ़ादारी के साथ साथ राजनीति में आका के प्रति भी वफादारी होनी चाहिए.

अपने मंत्रित्व काल में दोनों ही मुख्यमंत्री की कुर्सी के सपने देखने लगे थे. कयास लगाये जा रहे हैं कि मुख्यमंत्री खट्टर भी इनसे भविष्य में कभी भी चुनौती मिलती देख इनके पर कुतरने की कवायद में प्रयास करने लगे और दोनों को पराजित योद्धा प्रचारित कर पार्टी के उपरी प्लेटफार्म पर इनके स्टेट प्रेसिडेंट बनने के रास्ते में रोड़े बिछवाए जाने लगे हैं.

भाजपा में एक और बड़े जाट नेता बिरेंदर सिंह भी हैं जो कांग्रेस में रहकर प्रदेश में कई वर्षों तक कैबिनेट मंत्री रहे हैं, बाद में कांग्रेस में अपनी चीफ मिनिस्टर बनने की लालसा धूमिल होती देख तिवाड़ी कांग्रेस में पुरोधा बन गए थे,परन्तु हरियाणा में तिवाड़ी कांग्रेस का कोई भविष्य ना देखकर दोबारा कांग्रेस के दर पर आ गए. पर 2005 से 2014 तक कांग्रेस में भूपेंदर सिंह हुड्डा को मुख्यमंत्री बनाये जाने और अपनी उपेक्षा भांप कर 2014 के लोकसभा चुनाव के समय भाजपा में पाला बदलकर केंद्र में मंत्री बन बैठे. परन्तु बाद में 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने आई ए एस पुत्र को लोकसभा का टिकेट दिलाने के बदले अपनी राज्य सभा की सीट और मंत्री की कुर्सी दोनों छोड़नी पड़ी.

कुशल और सफल राजनीतिज्ञ के चार गुण में से वफादारी को छोड़कर महत्वाकांक्षा, जनाधार तथा राजनैतिक जोड़-तोड़ में प्रवीणता, शेष तीनों गुण इनमे मौजूद माने जाते हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने पुत्र को लोकसभा में मिली जीत के कारण बिरेंदर सिंह को अपने जनाधार पर अति विश्वास भी होने लगा और शायद इसी के चलते अपनी प्रदेश अध्यक्ष बनने की लालसा को अप्रत्यक्ष रूप से गत दिनों पत्रकारों के समक्ष प्रकट भी कर दिया. पिछले पखवाड़े बीरेंद्र सिंह ने पत्रकारों को बताया कि अगले 5 से 7 दिन में भाजपा अध्य़क्ष के नाम का ऐलान हो जाएगा. उन्होंने कहा कि मैंने सुझाव दिया है कि भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष ऐसा होना चाहिए जिसका खुद का प्रदेश में जनाधार हो, जिससे की मुख्यमंत्री की परेशानी कम होगी. परन्तु यहाँ शायद बिरेंदर सिंह यह भूल रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में उनके पुत्र ब्रिजेंदर सिंह की जीत उनके जनाधार के कारण नहीं अपितु देश में उस समय चल रही मोदी लहर के कारण हुई थी. उनके धराशाही होते जनाधार का उस समय ही पिटारा खुल चुका है जब छः माह बाद ही संपन्न 2019 के विधानसभा चुनाव में वर्षों तक गढ़ रहे अपने ही पारिवारिक विधानसभा क्षेत्र उचाना से अपनी पत्नी प्रेमलता को जजपा के दुष्यंत चौटाला के सामने वे जीत दिलवा पाने में विफल रहे.खैर इतने महत्वाकांक्षी एवं संदिग्ध वफादारी के व्यक्ति को भला भाजपा में कौन प्रदेश अध्यक्ष बनाएगा. दूसरी तरफ राजनीति के कुछ धुरंधर विचारक बिरेंदर सिंह के जनाधार वाले बयान को उनकी जोड़-तोड़ की राजनीति का एक सुविचारित कदम भी मान रहे हैं. उनका मानना है कि इस कथन से बिरेंदर सिंह एक तीर से दो शिकार करना चाह रहे हैं. यदि पार्टी उनको प्रदेश अध्यक्ष बना देती है तो वे प्रदेश में मुख्यमंत्री के पैरेलल सत्ता का प्लेटफार्म कायम कर लेंगे. यदि पार्टी उन्हें अध्यक्ष नहीं बनाती है और उनका फेंका हुआ जनाधार वाला फार्मूला अपना लेती है तो प्रदेश के अन्य जाट दावेदार स्वतः ही रेस से बाहर हो जाते हैं तथा पार्टी को विवश हो किसी गैर जाट को अध्यक्ष बनाना पड़ेगा. यह स्थिति बिरेंदर सिंह के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल बैठती है,क्योंकि फिर जोड़-तोड़ की राजनीति में कुशल बिरेंदर सिंह राष्ट्रीय नेताओं को जाटों को किसी ना किसी प्लेटफार्म पर उचित प्रतिनिधत्व देने के नाम पर अपने सांसद पुत्र को केंद्र में मंत्री पद दिलवा पाने में कामयाब हो जायेंगे.

अब भाजपा दुविधा में है कि अगर किसी जाट को अध्यक्ष पद देती है तो वो अपनी महत्वाकांक्षा के वसीभूत मुख्यमंत्री खट्टर के पैरेलेल सत्ता का केंद्र कायम कर खट्टर के समक्ष चुनौती खड़ी कर देता है और किसी गैर जाट को यह पद सौंपती है तो जाट प्रभावी प्रदेश में भाजपा को डर है कि कहीं जाटों की प्रत्यक्ष नाराज़गी उसे आगामी चुनावों में सत्ता की रेस से बाहर ना कर दे. दूसरे क्योंकि मुख्यमंत्री गैर जाट है इसलिए भी प्रदेश में सामाजिक समीकरण को संतुलित रखने हेतु किसी जाट को ही प्रदेश अध्यक्ष बनाना पार्टी हाई कमान को ज्यादा उचित प्रतीत हो रहा है. अतः ऐसा लगता है कि फिलहाल भाजपा वेट एंड वाच की नीति अपनाकर अभी निकट भविष्य में होने वाले बरोदा उपचुनाव तक तो यह निर्णय होल्ड पर ही रखेगी और बाद में किसी ऐसे जाट को तलाशा जायेगा, जो नाम का जाट हो, महत्वाकांक्षी ना हो और सुभाष बराला की तरह मुख्यमंत्री खट्टर से पटरी भी बैठा ले. पर समस्या यह है कि गर्म मसाला होगा तो गर्मी तो करेगा ही, बशर्ते एक्सपायरी डेट निकलने के कारण निष्प्रभावी ना हो गया हो. खैर आने वाला समय ही तय करेगा कि भाजपा के गले की फांस कितनी ढीली हो पायेगी या और अधिक कसती जाएगी.

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