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कन्या: पूजा से भोग की वस्तु तक

दिव्वंकल की क्रूर हत्या ने पूरे भारतीय समाज को एक बार फिर शर्मसार कर दिया है. क्या ऐसे लोग मानव कहलाने के काबिल है? हम किस आधुनिकता की बात करते हैं? क्या नारी सक्षतिकरण हो पा रहा है? बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ के नारो के बीच कैसे ये जघन्य अपराध हो पा रहे है?
|| केशी गुप्ता

आखिर इस बीमार मानसिकता की जड़े कब और कैसे खत्म हो पाएगी? ऐसे कई सवाल दिल को बैचेन किए हुए है. क्या ये कानून व्यवस्था का असफल होना है? कभी निर्भया और कभी टिव्वंकल, ये उस समाज और संस्कृति का हिस्सा है जहां देवियों की पूजा की जाती है. अष्टमी की पूजा में कंजक की तरह कन्याओ को घर बुलाकर पूजा की जाती है. उनके चरणों को धोया जाता है। फिर उसी समाज के लोग बलात्कार जैसे अपराध करते है. क्या ये कहना गलत है की ये भारतीय समाज का दोहरा रूप है. जिसकी कथनी और करनी अलग प्रतित होती है. मेरे विचार में आज मानव समाज नीचता के उस कगार पर पंहुच गया है जहां उसे मानव कहना ही तर्क संगत. नही है. मानवता के मूल संस्कार जैसे प्रेम, दया, अपनत्व का भाव सब मिट चुके है. व्यक्ति को ऐसे जघन्य अपराध करते हुए डर भी नही लगता. पर ऐसे अपराधों को अंजाम देने वाले लोग वही है जो एक बीमार कुंठित तथा संकीर्ण सोच के दायरे का हिस्सा है. चाहे फिर वह औरत हो या मर्द. अमानवता का ऐसा रूप बीमार व्यक्तित्व को दर्शाता है.

समाज में ऐसे बड़ते अपराधों पर रोक लगाने के लिए कानून व्यवस्था को सख्त करना होगा. जिसके तहत ऐसे जघन्य अपराधियें को बीच चौराहे में लटका देना चाहिए ताकि हर व्यक्ति के अंदर कानून और सजा का डर पैदा हो सके. रावण ने तो सिर्फ सीता माता का अपहरण किया था मगर उन्हे छूआ तक नही था. फिर भी हर साल दशहरे में रावण दहन किया जाता है. तो फिर ऐसे जघन्य अपराधियों और बलात्कारियों को भी ऐसी ही सजा मिलने चाहिए. जिससे हम अपनी सभ्यता संस्कृति को सही मायने दे सके. जहां कथनी और करनी में फर्क न रहे. मानवता को बचाने के लिए बीमार कुंठित मानसिकता को सूली चढ़ाना ही होगा.

लेखिका समाज सेविका है और दिल्ली मे रहती है।

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